________________
१८० . अतुला तुला
(आचार्य भिक्षु ने कहा- मुनिवरो ! यह कलिकाल है । सारे लोग मूढ़ हो रहे हैं तथा अपने-अपने आग्रहों से प्रतिबद्ध हैं। वे मेरा नाम तक सुनना नहीं चाहते। ऐसी स्थिति में मैं उनके कल्याण के लिए क्या कार्य कर सकता हूं ?)
उदाराणामन्तःकरणमुचितोत्साहलुलितं, पयोदानां प्रायो न हि न हि निराशाम भिलषेत् । मुधाधो बिन्दूनामपि न च निपातो हि भविता,
सकृत्वर्षायोगात्स्थलमपि नवाप्यंकुरवरम् ।।१४।। पवन ने कहा-मेघ ! उदार व्यक्तियों का अन्तःकरण उचित उत्साहयुक्त होता है। मेघों के लिए निराशा कभी इष्ट नहीं होती। तुम्हारी जो बूंदें नीचे गिरेंगी वे व्यर्थ नहीं जाएंगी । एक बार की वर्षा से भूमि में अंकुर पैदा नहीं होते। नए अकुर पैदा होते हैं अनेक बार की वर्षा से।
(मुनिद्वय ने कहा-गुरुदेव ! आप उदार हैं, आप में अपूर्व उत्साह है। आप जैसे परोपकारी व्यक्तियों को निराश नहीं होना चाहिए। आपकी वाणी व्यर्थ नहीं जाएगी। किन्तु एक बार के प्रयास से ऐसा नहीं होगा। आपको अनेक बार प्रयत्न करना होगा।).
इदानीं विश्वासो दृढतर उपास्ते मम मति, समर्थस्त्वं भावी महितलमशेषं द्रवयितुम् । ततस्त्यक्त्वोपेक्षां भव भवजवाच्छीकरवरो,
निधेहीषद्ध्यानं वितर तरसा मोदमतुलम् ।।१५।। मेघ ! मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि तुम सारी पृथ्वी को आर्द्र करने में समर्थ हो सकोगे । इस लिए तुम उपेक्षा को छोड़कर ठंडी बूंदों के रूप में शीघ्र ही बरसने लगो। तुम मेरी बात पर थोड़ा ध्यान दो और अतुल आनन्द को वितरित करो।
' (आचार्यवर्य ! हमारा यह दृढ़ विश्वास है कि आप सद् धर्म का प्रचारप्रसार करने में समर्थ होंगे। लोग आपसे लाभान्वित होंगे। आप निराशा को छोड़ें और लोगों को समझाने का उपक्रम करें। आप हमारी बात पर ध्यान दें और सर्वत्र आनन्द बिखेरने का यत्न करें।)
अभिज्ञायानन्यं सुहितमरुतो हृद्य विनयं, नवां स्फूर्ति यातोऽभिनवपरिपाटीमधिगतः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org