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________________ १७६ अतुला तुला कर रहे थे। वे सम्पूर्ण दिगन्तों को अपने में समेट रहे थे। उनकी आंखें निराशा के शब्द को चुरा रही थीं। वे विधुरित दशा वाले लोग अनुकरण-पटु अनन्त संकल्पों को अपना सान्निध्य दे रहे थे। समायाताः केचिद् बहलबहुलाभ्रच्छविजुषः, तृषाक्लान्ता लोका मुंदमपि च निन्युः पृथुतराम् । कलेः कोपाक्रान्ताः परमिह न किञ्चित् प्रववृषु रहो दोःस्थ्यं केलि कलयति कलौ काञ्चन नवाम् ॥४॥ आकाश को सुशोभित करने वाले कई मेघ गगन में उमड़ आए। तृषा से आतुर लोगों के मन प्रसन्नता से भर गए। किन्तु कलिकाल के कोप से आक्रान्त होकर वे बादल नहीं बरसे । अहो ! इस कलिकाल में दरिद्रता कोई नया खेल खेल रही है। [राजनगर (मेवाड़) के श्रावक सशंकित हो गए । आचार्य भिक्षु उनको समझाने के लिए गए। उन्हें देख लोग अत्यधिक प्रसन्न हुए। किन्तु प्रारंभ में भिक्षु ने, सत्य को जानते हुए भी असत्य का समर्थन किया। यह उनकी भीरता थी।] नभस्वानामोदस्मित इव मृदुः प्रादुरभवत्तदानी नभ्राजां नभसि नवलीलाऽप्यलषत । कलेः कोपाटोपोऽन्वभवदविशेषं विफलतां, व लुम्पेत्माहात्म्यं जगति महतां कोऽपि किमपि ।।५।। इतने में ही आमोद से मुसकराता हुआ कोमल पवन प्रादुर्भूत हुआ। उस समय बादल आकाश में नई लीला करने लगे। यह देखकर कलिकाल के कोप का आरोप अपने आप में विफलता का अनुभव करने लगा। यह सच है कि कोई भी व्यक्ति महान् व्यक्तियों की महत्ता को कुछ भी कम नहीं कर सकता। (आचार्य भिक्षु ने श्रावकों को समाहित किया, किन्तु स्वयं असमाहित हो गए। उन्होंने सत्य का अपलाप करने के लिए अपने आपको कोसा। रात में ज्वर का प्रकोप हुआ। संकल्प किया और प्रातः श्रावकों के समक्ष सत्य को खोलकर रख दिया। श्रावक संतुष्ट हुए किन्तु विरोध के तूफान उठे। पूर्व संगठन हिलतासा नज़र आने लगा। आचार्य भिक्षु को पथच्युत करने के अनेक प्रयास हुए किन्तु वे अपने संकल्प से विचलित नहीं हुए। उन्होंने संघ से सम्बन्ध-विच्छेद कर डाला।) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003063
Book TitleAtula Tula
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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