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५ : तेरापंथचतुर्विंशतिः
निदाघे संतप्तास्तरणि किरणोच्चण्डिमरुचा, पिपासालोलास्याः करुणतरुणाक्ष स्फुरणकाः । श्लथं विन्यस्यन्तो मुहुरपि मुखाग्रे करपुटं, निरुद्धा सन्नान्तश्चटुलतरचाटूक्तिविसराः ॥ १ ॥
ग्रीष्म काल | सूर्य अपनी प्रचण्ड किरणों से तप रहा है। सारे प्राणी उस ताप से तप्त हैं। मनुष्यों के मुंह प्यास से चंचल हो रहे हैं। आंखें तरुण करुणा से स्फुरित हो रही हैं। मनुष्य प्यास से आतुर होकर अपने मुख पर बार-बार धीमे से करपुट रखते हुए तीव्र प्यास का संकेत दे रहे हैं । वे अपने भीतर अत्यन्त चपल चाटु उक्तियों को रोके हुए हैं।
क्षणं श्वासस्पन्दाः क्षणमथ निरुद्धश्वसितयः, प्रयाम्यायामीत्युत्तर विधिकृतो हा इव चिरम् । वपुर्वैरस्यार्ता व्यथितमनसो व्याकुलधियो, जनाः जाताः सर्वेऽप्यहह कलिकालस्य महिमा || २ ||
क्षण भर में उनका श्वास स्पंदित होता है और क्षण भर में उनका श्वास रुक. जाता है । मानो कि वह श्वास 'जाऊं या आऊं' इस प्रश्न का उत्तर देने में वितर्क कर रहा हो । सभी मनुष्यों के शरीर नीरस, मन व्यथित और बुद्धि व्याकुल है । यह सारी कलिकाल की महिमा है ।
न निद्रा नोन्निद्राः किमपि कलयाञ्चक्रुरनिशं, दिगन्तान्निशेषान् दृशि दृशि निराशारवमुषि ।
संकल्पाननुकरणनानात्वनिपुणान्,
अनन्तान् जनाः सर्वेप्येवं विधुरितदशाः सन्निदधिरे || ३ ||
लोगन नींद में थे और न उन्निद्र । वे निरन्तर किसी विचित्र स्थिति का अनुभव
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