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१७४ अतुला तुला
कुरु द्रुतं नकविभूषणाख्यं, ज्ञानामृतोद्भूतरसं पिपासुम् ॥ ८ ॥
स्वामिन् ! मैं आपकी शरण में आया हूं । यद्यपि मैं बाल-लीला से आकलित हूं, फिर भी तुम मुझमें ( मुनि नथमल में ) ज्ञानामृत के रस की प्यास जगाओ ।
( वि० सं० १९६८ पौष - राजलदेसर )
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