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वीतरागाष्टकम् १७३
ततोऽभवन्नोस्फुटदृष्टिसृष्टिः, सम्यक् पदार्थाशयदर्शिनीश ! ॥४॥
हे ईश ! मैंने श्रेष्ठ और अनन्त गुणों से विशिष्ट आपकी मनोहारी मूर्ति को प्रसन्न - हृदय से नहीं देखा इसीलिए पदार्थों को यथार्थ स्वरूप को देखने वाली स्फुट दृष्टि का निर्माण नहीं हुआ ।
विभो ! प्रशान्तेन तवाशयेन, मनो मदीयं न चकार मैत्रीम् । अतो हि तृष्णा न मनो विमुंचेत्, सपत्नतां यापयतीव मन्ये ॥ ५॥
प्रभो ! आपके शान्तभाव के साथ मेरे मन ने कभी मैत्री नहीं की । इसीलिए तृष्णा उसका पीछा नहीं छोड़ रही है । मैं मानता हूं कि वह मेरे मन के साथ सौतेला व्यवहार कर रही है ।
नालोचनीयो
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न
विचारणीयो
ऽहं स्यामहं त्वं त्वमिहैव देव ! | त्वत्ता मयि स्यादपयातु मत्ता, स्वकाः स्वकास्तेन परे परे स्युः || ६ ||
देव ! मैं न आलोचनीय हूं और न विचारणीय हूं क्योंकि मैं 'मैं' हूं और तुम 'तुम' हो । तुम्हारी सत्ता ( शुद्ध चित्) मुझमें आए और मेरी सत्ता ( अशुद्ध चित्) दूर हो जाए । यह सच है कि अपना अपना और पराया पराया होता है ।
क्रोधः कुटुम्बी मन एव मानो, मायेव जाया सहजाभिलाषा । जानीहि जानीहि महानुभाव !,
कोहं विभुः का प्रगतिर्मदीया ||७||
हे महानुभाव ! क्रोध मेरा कुटुम्बी, मान मेरा मन, माया मेरी सहचरी और अभिलाषा सहजात रही है । देव ! तुम देखो-देखो, मैं कौन हूं - परमतत्त्व ' और मेरी क्या गति हो रही है ।
स्वामिन्निदानीं शरणं प्रपन्नं, मां बाललीलां कलयन्तमेवम् ।
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