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४ : वीतरागाष्टकम् कदापि नो तीर्थपते ! लुलोठ, त्वत्पादराजीवरजःकणेषु । ततो हहा ! कर्मरजोभिरेष,
आत्मा मदीयो न हि मोचितोस्ति ॥१॥ तीर्थपते ! मेरी यह आत्मा आपके चरण-कमलों के रजः कणों में कभी लुठित नहीं हुई इसीलिए यह कर्म रजों से मुक्त नहीं हो पा रही है।
स्वामिस्त्वदीयक्रमवारिजे न, रोलम्बसाब्रह म्यमहं चुचुम्ब । अद्यापि यातो भववारपार
पारं न पारंगत ! तेन मन्ये ॥२॥ स्वामिन् ! तुम्हारे चरण-कमलों का मैंने भ्रमर-भाव से चुम्बन नहीं किया। इसलिए हे पारंगत ! मैं मानता हूं कि मैं अभी तक संसार-समुद्र का पार नहीं पा
सका।
मनागपि प्राक् तव वाक्परागरागेन नाहं भगवन् ! ररञ्ज। ततो महाभाग ! विरागरिक्तो,
व्यक्तोस्ति रागो मयि · नक्तमह नि ॥३॥ भगवन् ! मैं तुम्हारी वाणी के पराग से किञ्चित् भी रक्त नहीं हुआ। इसीलिए हे महाभाग ! मुझमें विरागशून्य राग दिन-रात व्यक्त हो रहा है ।
श्रेष्ठा तवानन्तगुणैविशिष्टा, मूतिर्मया हृष्टहृदा न दृष्टा।
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