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१७० अतुला तुला
यत्कज्जलानां सुषमां तनोति, चक्षुः समीपं समुपागतानाम् । तत्कालिमानं न हि हर्तुमीशं,
किमत्र गेया विदुषास्य कीत्तिः ।।४।। आंख अपने पास आए हुए कज्जल की भी शोभा बढ़ा देता है किन्तु उसकी कालिमा को मिटा नहीं सकता। क्या विद्वान् व्यक्ति के लिए उसकी कीर्ति गेय
गले विलग्नं फणिनं गिरीशश्चकार पक्षिप्रभुणाप्यजेयम् । परं विषं नापजहार तस्य,
सत्सङ्गतेजो हि किमेतदेव ?।।५।। शंकर ने अपने गले में लिपटे सर्प को इतना बलशाली बना दिया कि वह गरुड़ से भी अजेय हो गया, किन्तु उसके विष का अपहरण नहीं किया। क्या सत्संग का यही तेज है ?
तूच्छं पयोदच्यतमम्बूबिन्द, शुक्तिर्महालुंकुरुते सुमुक्ताम् । तां मारयित्वा लभतेऽयंतां सा,
हा हाऽधमानां किमियं प्रवृत्तिः?।।६।। सीपी बादल से बरसो हुई पानी की छोटी-सी बूंद को धारण कर उसे मूल्यवान मोती बना देती है। किन्तु मोती बनी हुई वह बंद उस सीपी को तोड़कर ही मूल्य पाती है । हा-हा! अधम (तुच्छ) व्यक्तियों की यह कैसी प्रवृत्ति ?
प्रफुल्लितं पद्ममहर्मणे रुचा, प्रादुष्करोत्येव रवेः प्रभावम्। जन्मास्पदं शोषयते हि तस्य,
प्रशंसनीया किमियं प्रवृत्तिः?॥७॥ सूर्य की किरणों से विकसित कमल सूर्य के प्रभाव का ख्यापन करता है किन्तु सूर्य अपने को जन्म देने वाले कीचड़ का शोषण करता है। क्या यह प्रवृत्ति प्रशंसनीय है ?
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