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१६८ अतुला तुला आचार्य के रूप में विराजमान हैं, किन्तु आश्चर्य यह है कि वे महान् यशस्वी कालगणि के चरण-कमल में भ्रमर की तरह लीला करते हुए तथा उनकी आंखों में तारा की तरह समाते हुए पवित्र मन से मनोयोगपूर्वक मुझे सही मार्ग-दर्शन दे
भास्वान् भासयति प्रभासुररुचा भावानशेषानपि, नांशोरंशमपि प्रयच्छति परं तेभ्यः कदापि क्वचित् । चित्रं ज्ञानमयं प्रकाशमददो मां प्राङ् मुनीनां पते !, भानु! तुलितस्त्वया किल पुरा किं साम्प्रतं कल्प्यताम् ॥७॥ सूर्य अपनी प्रकाशवान् किरणों से सभी पदार्थों को प्रकाशित करता है किन्तु वह अपने प्रकाश का एक अंश भी उन्हें कभी नहीं देता। गुरुदेव ! आपने मुझे ज्ञानमय प्रकाश दिया। आप . पहले भी सूर्य से तुलित नहीं हुए तो आज उसकी कल्पना ही कैसे की जा सकती है ?
संस्मतु दिवसानि तानि हृदयं प्रोत्साहमालिङ्गति, जिह्वा श्लिष्यति वर्णसंततिमपि प्रोत्कण्ठया चञ्चला। आनन्त्यं खलु सद्गुरोरुपकृतेरालोकमाना मुदा, सामग्री तनुमात्मनश्च तरसा विश्राममाकांक्षति ॥८॥
हृदय उन दिनों की स्मृति करने के लिए उत्साहित हो रहा है। उत्कंठा से अत्यन्त चंचल बनी हुई मेरी जिह्वा कुछ बोलना चाहती है। गुरु का उपकार अनन्त है और मेरी अपनी अभिव्यक्ति की सामग्री अल्प है। अतः वह अब विश्राम चाहती है।
(विक्रम संवत् २००२ माघशुक्ला १०, सरदारशहर)
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