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अध्ययनस्मृति: १६७
सामोदं मुनिनायकेन सौभाग्यादवतारितः शिशुरहं
तुलसीपादद्युधन्यास्तटे, प्रोद्दामदी प्रत्विषा ||३॥
उसी दिन कोई स्वर्णमय बेला आयी । उन क्षणों में आचार-सम्बन्धी कलाकुशलता का अभ्यास कराने के लिए आचार्य चरण ने अपनी कृपारूपी तीव्र किरणों के सहारे मुझ शिशु को मुनि तुलसीरूपी सरिता के तट पर उतारा ।
सद्भाग्योदयमेव मे प्रतिपदं मन्येऽहमुच्चैस्तरां, विज्ञानां मुकुटस्य शासनपतेः कालोस्तु हेत्वन्तरम् । मच्छिष्यो मनुजाकृति मनुजतावाच्यार्थशून्यास्पदं, कतु मानवमर्हति स्फुटमिति ध्यात्वा सुयुक्तं कृतम् ॥४॥
मैं पग-पग पर अपना परम भाग्योदय मानता हूं कि विद्वान् शिरोमणि, शासनपति श्रीमद् कालू ने मेरे लिए यह सोचा था कि 'मेरा यह शिष्य केवल मनुजाकृति मात्र है और मानवता के वाच्य अर्थ से शून्य है । इसको मुनि तुलसी मानव करने में समर्थ है।' इसीलिए पूज्य गुरुदेव ने मुझे तुलसी के पास सौंपा। यह उन्होंने उचित ही किया ।.
गन्तुं नाप्यधिगन्तुमध्वनिगतिः कस्मिन्नपि प्रालसल्लोल लोचनमक्षिपं सुमुनिना संकेतितायां सृतौ । वारंवार मश्राङ्गुली ग्रहकृता सा सारणा वारणा, मामद्य स्मृतिमागता वितनुते मुद्विह्वलं रंहसा ||५||
किसी मार्ग पर चलने या किसी विषय को जानने में मेरी गति नहीं थी । मुनि तुलसी जिस मार्ग का संकेत दे देते मैं अपनी चंचल आंखों को वहीं टिका देता । उन्होंने बार-बार मेरी अंगुली पकड़-पकड़कर मुझे गन्तव्य की दिशा में गतिशील बनाया और अगन्तव्य की दिशा में जाने से रोका। आज उसकी स्मृति होने मात्र से मेरा मन प्रसन्नता से सहसा विह्वल हो उठता है ।
किं चित्र पथदर्शको मुनिपतिर्यत्साम्प्रतं राजते, तच्चित्रं यशसोज्ज्वलस्य गणिनः कालोः पदाम्भोरुहि । लीलां माधुकरीं नयन्नयनयोस्तारापदं संसजन्नध्वानं निरवद्यमुज्ज्वलमना मां चेतसा दर्शयत् ॥ ६ ॥
यह कोई आश्चर्य नहीं कि वे हमारे पथ-दर्शक मुनि तुलसी आज तेरापंथ में
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