________________
आशुकवित्वम्
लोप्तुकामस्त मित्रं, स्नेहयोगम् ।
दीप्रो दीपः पवनसचिवो प्रोच्चैश्चेष्टामकृत बहुशः प्राप्नुवन् आलोकेऽपि प्रकृतिचपलो नान्वभूदाशु नाशं, कस्यात्यन्तं सुखमुपनतं. दुःखमेकान्ततो वा ॥३॥
१५७
मन्द मन्द पवन के सहारे दीप जल रहा है । वह अन्धकार को चुराना चाहता है | उसने बहुत बार स्नेह का योग पाकर अन्धकार को चुराने के अनेक यत्न किए। प्रकृति से चपल उस दीप के आलोक ने भी यह अनुभव नहीं किया कि वह शीघ्र बुझ जाने वाला है । अत्यन्त सुख या अत्यन्त दुःख किसे प्राप्त होता है ।
(वि० सं० २००८ चैत्र -- रतनगढ़ )
१५ : समस्या - भवेद् वर्षारम्भः प्रकृतिपुलको मोवजनकः
जनो दीर्घं चापं प्रकृतसमयं यस्य मनुते, तथाल्पं दीर्घञ्च प्रकृतकरणं यस्य मनुते । प्रसन्नामन्यां वा दृशमपि तथा तस्य कृतिनो, भवेद् वर्षारम्भः प्रकृतिपुलको मोदजनकः || १ ॥
जिसके प्रकृत समय को मनुष्य अल्प होने पर भी दीर्घ मानता है और जिसके कृत कार्य को दीर्घ होने पर भी अल्प मानता है, जिसकी प्रसन्न दृष्टि को दीर्घ होने पर भी अल्प मानता है और जिसकी अप्रसन्न दृष्टि को अल्प होने पर भी दीर्घ मानता है, उस भाग्यशाली मनुष्य के वर्ष का आरम्भ प्रकृति को पुलकित और जनमानस को प्रमुदित करने वाला होता है ।
Jain Education International
चिरं तापः पृथ्वीमपि च गगनं श्लिष्यतितमामशेषाणां शोषं नयति सरसत्वं प्रतिपलम् । समाधातुं दीर्घा बहुजन समस्याममुमसी, भवेद् वर्षारम्भः
प्रकृतिपुलको मोदजनकः ॥ २ ॥
चिरकाल से आप पृथ्वी और आकाश को तप्त कर रहा है। वह सभी
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org