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१५६ अतुला तुला
असत्यं तज्ज्ञानं कथनमथवा नो फलति यद्, गतौ नित्यालस्य सहज रुचिराहारविषये ||४||
जो लोग जानते हैं कि ब्रह्मचर्यं कठोर असिधाराव्रत है और जो लोग कहते हैं कि यह ब्रह्मचर्य अमृतधारा से आहित होने पर भी विष जैसा है, वह ज्ञान और कथन असत्य है । गति में नित्य आलस्य है और आहार के प्रति सहज आकर्षण है, तब ब्रह्मचर्य फलित कैसे हो ?
(वि० सं० २००७ चातुर्मास, हांसी )
१४ : समस्या -- कस्यात्यन्तं सुखमुपनतं दुःखमेकान्ततो वा
सुखमुपनतं दुःखमेकान्ततो वा,
कस्यात्यन्तं यस्यात्यन्तं प्रकृतिविजयो यस्य नास्त्येव किञ्चित् । लाभालाभे भवति समता तस्य किन्नाम दुःखं,
रक्तो द्विष्टः सततमपि यस्तस्य सौख्यं कुतस्त्यम् ||१||
अत्यन्त सुख किसे प्राप्त होता है ? अत्यन्त दुःख किसे प्राप्त होता है ? जिसने अपनी प्रकृति पर पूर्ण विजय पा लिया है, उसे अत्यन्त सुख प्राप्त होता है और जिसे अपनी प्रकृति पर किंचित् भी विजय प्राप्त नहीं है उसे अत्यन्त दुःख मिलता है । जो व्यक्ति लाभ और अलाभ में सम रहता है, उसे दुःख कहां ? और जो लाभ में रक्त और अलाभ में द्विष्ट होता है उसके सुख कहां ?
या दृग् वाष्पं किरति शिशिरं सैव कोष्णं कदाचित्, कामं शांति वहति पवनः सोपि सन्तापदग्धः । शाम्येद् वन्हि तदपि सलिलं वाडवाक्रान्तकायं, कस्यात्यन्तं सुखमुपनतं
दुःखमेकान्ततो वा ||२||
जो आंख कभी ठंडी भाप को बिखेरतो है, वह कभी ऊष्ण आंसू भी बहाती है । जो पवन पर्याप्त शीतलता को वहन करता है, वह कभी ताप से गरम भी हो उठता है । पानी आग को बुझाता है किन्तु वह भी वाडवानल से आक्रान्त हो जाता है । यह सत्य है कि अत्यन्त सुख और अत्यन्त दुःख किसे प्राप्त है ?
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