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१३ : समस्या - विषममसिधाराव्रतमिदम्
परान्नीत्वा शेषं क्षणमिह नयेत् कश्चिदुदयं, नयेदन्ते तेजः परिणतिमलं कालिमनि तत् । कृशानोस्तज्ज्योतिः किमिति समिधामन्तललितं, तदाप्तं स्वोत्सर्गे विषममसिधाराव्रतमिदम् ||१||
कोई पुरुष दूसरों का अन्त कर स्वयं उदय को प्राप्त होता है, किन्तु अन्त में उस तेज की परिणति कालिमा में होती हैं । ईंधन का अन्त कर चमकने वाली अग्नि की ज्योति का अन्तिम परिणाम कालिमा है, राख है । जो तेज स्वयं के उत्सर्गबलिदान से प्राप्त होता है, वह वस्तुतः कठोर असिधाराव्रत है ।
वृहद्भानोस्तापे तपति नवनीतं त्विति न न, न तापेऽपि स्नेहं त्यजति तदिदं विस्मयकरम् । परस्यातापेनातपति हृदयालुः प्रतिपलं, स्वलभ्यो मूल्यस्तद् विषममसिधाराव्रतमिदम् ||२||
किसी ने कहा --- देखो, अग्नि के ताप से नवनीत तप जाता है । दूसरा मित्र बोला— नहीं, यह कोई विस्मय की बात नहीं है । विस्मय की बात यह है कि वह तप्त होने पर भी अपने स्नेह को नहीं छोड़ता । हृदयालु पुरुष दूसरे के आतप -- कष्ट में स्वयं तप्त होता है, पीडित होता है, किन्तु अपने स्नेह को नहीं छोड़ता । यह उसका अपना मूल्य है । यथार्थ में यह कठोर असिधाराव्रत है । मलानामावासो वपुरिति मुहुश्चिन्तितमलं, क्षणं सौख्यं दुःखं बहु तदपि बुद्धयाभ्युपगतम् । न चंतावच्चिन्ताकणनिचयवार्यो हि विषमशरस्तेन प्रोक्तं विषममसिधाराव्रतमिदम् || ३ ||
मैं बहुत बार यह चिन्तन किया है कि यह शरीर मलों का आवास-स्थल है और मैंने बुद्धि से यह भी स्वीकार कर लिया कि सुख-दुःख क्षणिक हैं; किन्तु. इतने चिन्तन कणों से ही कामदेव को नहीं रोका जा सकता । इसीलिए यह कहा गया है कि काम पर विजय पाना कठोर असिधाराव्रत है ।
विदन्तो ब्रह्मान्तं ब्रह्मदं
वदन्तो
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विषममसिधाराव्रतमिदं, विषममृतधाराहितमपि ।
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