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१५४ अतुला तुला
अधस्तमिस्रं कुरुते निषद्यां,
सीदन्ति सन्तो विलसन्त्यसन्तः ॥२॥ दीपक में रही हुई अग्नि की एक कणिका भी तेल और बाती का नाश कर डालती है। उसके नीचे अन्धकार आनन्द से बैठा रहता है। यह सच है कि सज्जन व्यक्ति दुःख पाते हैं और दुर्जन व्यक्ति सुखी रहते हैं।
सीदन्ति सन्तो विलसन्त्यसन्तो, दोषः सतामेष वितर्कणीयः। न चाचरन्तोपि खलत्वमत्र,
प्रसादयत्नं न च ते त्यजन्ति ।।३।। सज्जन व्यक्ति दुःख पाते हैं और दुर्जन व्यक्ति सुखी रहते हैं। सज्जन व्यक्तियों का यह दोष चिन्तनीय है कि वे कभी दुर्जनता का आचरण नहीं करते और अपनी सज्जनता को कभी नहीं छोड़ते।
सीदन्ति सन्तो विलसन्त्यसन्तः, किमत्र चिन्त्यं बहु पंडितेन ।' मताधिकारस्य युगे बहुत्वं,
सतामशेषां निजकीकरोति ॥४॥ सज्जन व्यक्ति दुःख पाते हैं और दुर्जन व्यक्ति सुख से रहते हैं—इसमें पंडित व्यक्ति को ज्यादा क्या सोचना है ? यह मताधिकार का युग है। बहुमत सारी सत्ता को अपने हाथ में कर लेता है। तात्पर्य है कि आज के युग में सज्जन कम हैं और दुर्जन अधिक।
(वि० सं० २००७-हिसार)
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