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आशुकवित्वम् १५३ नीचे बहने लग जाती है। निसर्गत: वक्र भी अच्छा लगने लगता है और कहींकहीं साम्य भी आवश्यक हो जाता है। सदा वक्र गति करने वाला मणिधर सर्म बिल में प्रवेश करते समय सीधा-सरल हो जाता है। अतः समता और वक्रता अपने-अपने स्थान में अच्छी लगती है ।
निद्रायां वा तमसि विपुले चक्षुषोश्चाप्यभागे, भेदाभावो भवति सुतरां तेन कोर्थः प्रसिद्ध्येत्। . किं वा भ्रश्येद् विपरियति तत्तेन नैकान्तवादः,
साम्यं काम्यं प्रकृतिरुचिरं क्वापि वक्र विभाव्यम् ॥२॥ निद्रा, सघन अन्धकार और नेत्र के अभाव में सर्वत्र अभेद प्रतीत होता है। किन्तु इससे कौन-सा अर्थ सिद्ध होता है ? इसी प्रकार इनके विपरीत जागरण, प्रकाश और नेत्र के अस्तित्व में कौन-सी हानि होती है ? इसलिए यह एकान्त सत्य नहीं है कि समता ही काम्य है और वक्रता अकाम्य या वक्रता ही काम्य है और समता अकाम्य।
(वि० सं० २००७-हिसार)
१२ : समस्या-सीदन्ति सन्तो विलसन्त्यसन्तः
सत्यं कटुत्वं तव वारिराशे !, रत्नानि नीचैश्चरणे दधासि । मूर्धन्यन्तानि तृणानि हन्त !,
सीदन्ति सन्तो विलसन्त्यसन्तः ॥१॥ हे समुद्र ! तुम्हारे लिए यह कटु सत्य है कि तुम रत्नों को नीचे-तल में रखते हो और अपने ऊपर-सतह पर तृणों को धारण करते हो। हां, यह सत्य है कि इस युग में सज्जन व्यक्ति दुःख पाते हैं और दुर्जन व्यक्ति सुखी रहते हैं।
तनूनपातः कणिका प्रदीपे, स्नेहञ्च वर्तिञ्च नयेत नाशम् ।
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