________________
१० : समस्या-ब्राह्मणस्य महत्पापं, संध्यावंदनकर्मभिः
ब्राह्मणस्य महत्पापं, संध्यावंदन कर्मभिः। संरुष्टं जातिरागेण,
तिमिरे स्वं व्यलीयत ॥१॥ ब्राह्मण के महान् पाप ने संध्या-वंदन कर्म से रुष्ट होकर जातीय अनुराग के कारण अपने आपको तिमिर में विलीन कर दिया।
ब्राह्मणस्य महत्पापं, संध्यावंदनकर्मभिः । च्युतं सम्मानमालब्धं,
चित्रं राज्ये द्विजेशितुः ॥२॥ ब्राह्मण का महाम् पाप संध्या-वंदन कर्म से च्युत होकर चला। अन्य किसी ने उसे सम्मान नहीं दिया। आश्चर्य है कि चन्द्रमा के राज्य में उसे सम्मान प्राप्त हो गया।
(वि० सं० २००५ कार्तिक कृष्णा ७, छापर)
११ : समस्या-साम्यं काम्यं प्रकृतिरुचिरं क्वापि वक्र
विभाव्यम् साम्यं काम्यं प्रकृतिरुचिरं क्वापि वकं विभाव्यं, मार्गाभावे प्रकृतिकुटिला निम्नगाभून्नदीयम् । वक्र काम्यं प्रकृतिरुचिरं क्वापि साम्यं विभाव्यं,
रन्ध्रे वेष्टुं ऋजुगतिरहो रत्नवानेष दर्वी ॥१॥ निसर्गतः जो मनोहर है वह साम्य अच्छा लगता है, किन्तु कहीं-कहीं वक्रता भी आवश्यक होती है। सरल सीधी बहने वाली नदी मार्ग के अभाव में वक्र और
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org