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आशुकवित्वम् १५१ मूक मनुष्य भी वाचाल हो जाएं इसमें कितना आश्चर्य हो सकता है क्योंकि आज के युग में चिकित्सा की विविधता है और विविध परिणतियों वाले शरीर हैं। आश्चर्य यह हो सकता है कि वाणी पर अधिकार रखने वाले व्यक्ति भी किसी वस्तु के प्रार्थी होकर स्वार्थवश असद् बात का विरोध करने में रुक-रुककर बोलते हैं, या मौन हो जाते हैं।
ममायं सन्नेताऽप्रतिहतगतिश्चेति मरुतो, घनःप्रोच्चैर्गच्छन् कथयति कथां वक्त्रविकल:। लसत्कीति लब्ध्वा सुगुरुमथ किं भक्तिभरितः,
कियच्चित्रं वाग्मी भवति बत! मूकोऽपि मनुजः ॥४॥ बादल ऊंचे आकाश में चलता हुआ मुख से विकल होते हुए भी गर्जन के द्वारा अपनी यह बात कह रहा है कि अप्रतिहत गति वाला पवन मेरा नेता है, मुझे ले जाने वाला है। किन्तु यह कितना आश्चर्य है कि कीर्तिमान् सुगुरु को पाकर भक्ति से भरा हुआ वाचाल शिष्य भी (गुरु-श्लाघा करने में) मूक हो जाता है।
धनी विद्वद्गोष्ठ्यामपि तदधिपत्वं विरचयन्, कियच्चित्रं वाग्मी भवति बत ! मूकोऽपि मनुजः। सवर्णे वाग्मित्वं भवति खलु मिथ्याश्रुतिरिय
मथो कश्चिच्चोरः प्रथमतदकारञ्च हृतवान् ॥५॥ एक धनी व्यक्ति विद्वानों की गोष्ठी में गया और वहां का अध्यक्ष बनकर मूक होते हुए भी (कुछ न जानते हुए भी) वाचालता करने लगा। यह कितना आश्चर्य है ? जो यह कहा जाता है कि सवर्ण (विद्वान् ) में वाक्पटुता होती है, यह मिथ्याश्रुति है । अथवा किसी चोर ने उस (स्वर्ण) के प्रथम अकार को चुरा लिया, अतः वह वाग्मिता (स-अ+वर्ण =स्वर्ण) स्वर्ण में अधिष्ठित हो गई।
[वि० सं० २००५ पौष शुक्ला ५, छापर]
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