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________________ १४६ अतुला तुला प्रति यते । दृष्टिविसरो, अदृश्ये दृश्यत्वं स्फुरति न च चित्रं तदिदं, नवा सूक्ष्मस्याणोर्नयनविषयत्वं परं दृश्येऽप्यन्धः क्वचनचतुरो गिरेर्दाहो दृश्यो न च पदतलस्येति विदितम् ||४|| इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि अदृश्य में भी दृश्य की स्फुरणा होती है । इसमें भी कोई आश्चर्य नहीं कि सूक्ष्म अणु को दृष्टिगोचर करने का मैं प्रयत्न नहीं करता हूं । पर कहीं-कहीं दृश्य विषय में भी यह दृष्टि का चतुर विस्तार अन्धा हो जाता है । यह सच है कि पर्वत पर लगी आग दीखती है परन्तु पैरों के तलों में लगी आग नहीं दीखती । अहो ! ज्योतिस्तापं नयति बत मामित्यतिलपन्, जलं नात्मस्थानं परवशगतं पश्यतितमाम् । गतिरेषा परमिह, किमग्नेविध्यातुर्भवतु गिरेर्दाहो दृश्यो न च पदतलस्येति विदितम् ||५|| एक बार पानी ने कहा- देखो, आग मुझे तपा रही है । ऐसे कहते हुए पानी ने यह नहीं देखा कि वह स्वयं अभी परवश है, अर्थात् पात्रगत है । क्या अग्नि को बुझाने वाले पानी की यह दशा हो सकती है ? यह सच है कि पर्वत पर लगी आग दीखती है परन्तु पैरों के तलों में लगी आग नहीं दीखती । गिरेर्दाहो दृश्यो न च पदतलस्येति विदितं, यदुद्योगादीयरतगतिमुनीनां समभवत् । सश्रीतुलसीमुनिराजः प्रथयतु, गुणगणसमादाननिपुणान् ॥ ६ ॥ ईर्या समिति में रत मुनियों ने प्रयत्न किया और यह जान लिया कि पैरों में लगी आग दीख पड़ती है किन्तु पर्वत पर लगी आग नहीं दीखती । महामान्य तुलसी अपने सभी शिष्यों को गुण ग्रहण करने में निपुण बनाएं । खल ! त्वं किं चूर्णप्रवण इति पृष्टस्त्रिफलया, कठोरा रूक्षासि प्रकृतिसदृशोप्येवमवदत् । कविकुल किरीटैरभिहितं, अहो ! सत्यं सत्यं गिरेर्दाहो दृश्यो न च पदतलस्येति विदितम् ॥७॥ महामान्यः स्वशिष्या निःशेषान् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003063
Book TitleAtula Tula
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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