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________________ ६ : समस्या-गिरे हो दृश्यो न च पदतलस्येति विदितम् हिमांशोः खल्वेषा किमिव हरिणे प्रोतिरुचिता, तमस्विन्या सार्धं विहरणमपि प्राप्तकलुषम् । रविः स्वं क्रूरत्वं त्यजति बत ! नाप्यत्र कुपितो, गिरेर्दाहो दृश्यो न च पदतलस्येति विदितम् ॥१॥ सूर्य ने सोचा-क्या चन्द्रमा की हिरण के साथ यह प्रीति उचित है ? उसका रात्री के साथ घूमना भी कलुषित है । यह सोचकर सूर्य कुपित हो गया किन्तु वह अपनी क्रूरता को छोड़ने के लिए तैयार नहीं हुआ। यह सच है कि पर्वत पर लगी आग दोखती है, पर पैरों के तलों में लगी आग नहीं दीखती। 'अहो ! शून्यप्रेमी प्रकृतिचपलः श्यामलतनुस्तडित्पाती याञ्चापटुरपि घनोऽस्थायिविभवः । भुवस्तापं पापं मनसि विनिवेश्य स्तनति यद्, गिरेहो दृश्यो न च पदतलस्येति विदितम् ॥२॥ आश्चर्य है कि बादल शून्य-प्रेमी है। वह प्रकृति से चपल है । उसका शरीर काला है । वह बिजली को गिराता है। वह याचना करने में निपुण है । उसकी सारी संपदा अस्थिर है। वह पृथ्वी के एकमात्र दोष-ताप को ध्यान में लाकर गर्ज रहा है। यह सच है कि पर्वत पर लगी आगदीखती है, पर पैरों के तलों में लगी आग नहीं दीखती। कियल्लोलं चेतः कियदथ चलं शाखिकिसलं, स्थिरो नायं वातस्त्विति चपलवीक्षेङ्गघटिके ! चिरं मा स्थाः कालो विहरति कुहासौ तव पिता, गिरेर्दाहो दृश्यो न च पदतलस्येति. विदितम् ॥३॥ घटिका ने कहा-'यह चित्त कितना चंचल है। सामने खड़े वृक्ष का यह पत्ता चंचल है। यह वायु भी स्थिर नहीं है'-इस प्रकार दूसरों की चंचलता की चर्चा में लीन घड़ी की सूई अटक गई। तब कवि ने कहा-ओ ! दूसरों की चपलता देखने वाली घड़ी ! तुम एक स्थान पर मत रुको । देखो, तुम्हारा पिता काल कितनी चपल गति से चला जा रहा है। यह सच है कि पर्वत पर लगी आग दीखती है, परन्तु पैरों के तलों में लगी आग नहीं दीखती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003063
Book TitleAtula Tula
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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