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१४४ अतुला तुला
कष्टानां प्रतिपत्तिरस्त्यविकला ज्ञानं यथार्थं पुनर्मोदन्ते मुनयो मनोबलजुषः कष्टेष्वने केष्वपि । तत्त्वज्ञानमतत्त्वत: किमु न तान् कुर्वीत मिथ्यात्विनोऽतत्त्वे तत्त्वमतिर्यदुक्तमिह चेद् मिथ्यात्वगं लक्षणम् ॥३॥
मुनि-जीवन में कष्ट आते हैं। उनका उन्हें सही ज्ञान भी होता है । फिर भी वे मनोबली मुनि अनेक कष्टों के आने पर प्रसन्न रहते हैं। यदि वे आने वाले कष्टों को कष्ट न मानें तो क्या अतत्त्व से उत्पन्न उनका तत्त्वज्ञान उन्हें मिथ्यात्वी नहीं बना देता ? क्योंकि सिद्धान्त की भाषा में कहा जाता है कि अतत्त्व में तत्त्व की बुद्धि मिथ्यात्व का लक्षण है।
मोदे कष्टविधायिनो विमतयो जीवन्ति नैके जनाः, सूर्यश्चन्द्रमसं रवि हिमकरः किं वान्यथाऽनुव्रजेत् । चित्रं चित्रमिदं परार्थकुशलाः कष्टेपि मोदप्रदाः,
मोदन्ते मुनयो मनोबलजुषः कष्टेष्वनेकेष्वपि ॥४॥ . सुख में दुःख उत्पन्न करने वाले विपरीत मति वाले व्यक्ति एक नहीं, अनेक हैं । अन्यथा सूर्य चन्द्रमा का और चन्द्रमा सूर्य का पीछा क्यों करता ? यह आश्चर्य है कि परोपकार करने में निपुण और दुःख में सुख देने वाले मनोबली मुनि अनेक कष्टों के आने पर भी प्रसन्न रहते हैं।
मोदन्ते मुनयो मनोबलजुषः कष्टेष्वनेकेष्वपि, बुध्वाऽहं छिदितापताडनविधौ प्रापं तितिक्षां पराम् । अज्ञास्यं यदि वा शिलाशकलतो नूनं परीक्षा मम, गुंजाभिः सह तोलनं च भविताऽधक्ष्यं कृशानो निजम् ।।५।। स्वर्ण ने कहा-मनोबली मुनि अनेक कष्टों के आने पर भी प्रसन्न रहते हैं-यह जानकर छेदन, तापन और ताडन की विधि से गुजरते हुए भी मैंने परम तितिक्षा रखी। यदि मुझे यह ज्ञात होता कि शिला के टुकड़े पर मेरी परीक्षा होगी और गुंजाओं के साथ मुझे तोला जाएगा तो मैं उसी समय अग्नि में गिरकर अपने को जला डालता।
(वि० सं० २००४ पौष शुक्ला ४ सुजानगढ़)
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