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१४२ अतुला तुला
तपाक्रान्ता नद्यः शिथिलनिनदाश्चातककुलं, तृषा क्लेशान् मन्दं रटति सुवदानाब्दसुहृद : । भवेच्चेत्तद् युक्तं परमुदकपूर्णोदरदरिः कथं धीरं धीरं ध्वनति नवनीलो जलधरः ? ||२|
आतप से आक्रान्त सरिताओं की कलध्वनि शिथिल हो रही है, तृषा से आकुल चातक कुछ मन्द मन्द बोल रहा है । मयूर की केका कुंठित हो रही है । यह सब समझ में आनेवाला है । परन्तु जल से लबालब भरा हुआ यह नवीन ली आभा वाला मेघ धीरे-धीरे क्यों गर्ज रहा है ?
कथं धीरं धीरं ध्वनति नवनीलो जलधरः ? न विद्यात् ग्रीष्मो मामिति कलनया साम्प्रतमहो ' स्फुरद्विद्युद्दी वियति विहरन्तं स्फुटममुं, स दृष्ट्वा तत्कालं विरहिहृदयं त्राणमनयत् ॥ ३ ॥
ओह ! नवीन नीली आभा वाला मेघ अब धीरे-धीरे गर्जन कर रहा है। कहीं उसे ग्रीष्म जान न ले । किन्तु वह स्वयं चमचमाती बिजली से दीप्त है, - बहुत ऊपर आकाश में चल रहा है — ऐसी स्थिति में वह अपने आपको कैसे छिपा सकता है ? ग्रीष्म ने उसे स्पष्ट देखा और अपने प्राण बचाने के लिए तत्काल वह विरही व्यक्ति के हृदय में जा बैठा ।
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अरे ! क्वासि क्वासि प्रकटय तनुं वारिदवर !, सदा स्फारैर्जात कृषिनयन मित्थं सलिलमुक् ! किमेतन्नो ज्ञातं तव विशदवृत्ते में रुरयं कथं धीरं धीरं ध्वनति नवनीलो जलधरः ? ॥४॥
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मेघ ! तुम कहां हो, तुम कहां हो? तुम अपने आपको प्रकट करो। इस प्रकार तुम्हारी प्रतीक्षा में कृषक की खुली आंखें जल बहाने लग गईं। क्या तुम्हारे जैसे निर्मल वृत्तिवाले को इतना भी पता नहीं है कि यह मरुस्थल है ? फिर क्यों यह नवीन नीली आभा वाला मेघ धीरे-धीरे गर्जन कर रहा है ?
अहो ! शून्ये लब्धुं तत इत इवोज्ज्वल्यपदवीं, कथं धीरं धीरं ध्वनति नवनीलो जलधरः ?
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