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६ : समस्या-सभामध्ये न कोकिला
न वसन्तो न चाम्राणि, न चैवेयं वनस्थली। किं चित्रं यदि वा विद्वन् !,
सभामध्ये न कोकिला। न वसन्त ऋतु है, न आम्रफल और न यह वनस्थली है। विद्वन् ! यदि इस सभा में कोयल न हो तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ?
(विक्रम सं० २०१२ षौष कृ० १०, रतलाम-संस्कृत साहित्य सम्मेलन)
१० : समस्या-चित्रं दिवापि रजनी रजनी दिवा च
यस्मात् प्रकाशकिरणः प्रसभं प्रथन्तेऽप्यन्धत्वमेति नयनञ्च तमीक्षमाणम् । ज्योतिर्नवं स्फुरति संतमसे प्रगाढे,
चित्रं दिवापि रजनी रजनी दिवा च ॥१॥ जिस सूर्य से प्रकाश-किरणें विकीर्ण होती हैं, उसको देखने वाली आंख चुंधिया जाती है। सघन अन्धकार में नई ज्योति प्रकट होती है। विचित्र है-दिन में रात और रात में दिन हो रहा है।
आलोक एष लषते जडपात्रचारी, धूमोदयो भवति तेजसि दीप्यमाने। पुत्रः सुधीर्जनयिता च जडोन्यथा पि,
चित्रं दिवापि रजनी रजनी दिवा च ॥२॥ यह प्रकाश मिट्टी के दीप में रहने वाला है। जब इसका तेज दीप्त होता है तब धुआं निकलने लग जाता है। कहीं पुत्र विद्वान् है तो पिता मूर्ख और कहीं पिता विद्वान् है तो पुत्र मूर्ख । विचित्र है, विचित्र है-दिन में रात और रात में दिन हो रहा है।
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