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समस्यापूर्तिरूपम्
१. समस्या-दुर्जया वत ! बलावलिप्तता
व्योम्नि कुंजररिपुर्घनाघनगर्जनं किल निशम्य सत्वरम् । जानुभङ्गमयते निरर्थकं,
दुर्जया वत ! बलावलिप्तता । आकाश में मेघ के गर्जन को सुनकर अष्टापद (हाथियों का शत्रु) तत्काल ही (मेघ को हाथी समझकर) ऊपर उछला और व्यर्थ ही उसने अपनी टांगें तोड़ लीं। यह सच है कि बल के गर्व को जीतना बहुत ही दुष्कर है।.
(वि० सं० १९६८ पौष-राजलदेसर)
२ः समस्या-वसन्ति हि प्रेम्णि गुणा न वस्तुषु
जलाशयानाममृतोपमं खलु, पिबन्ति नीरं न तृषातुरा अपि । नभोम्बुपा वारिदवारिणा विना,
वसन्ति हि प्रेम्णि गुणा न वस्तुषु । चातक प्यास से आकुल होने पर भी मेघ का पानी ही पीते हैं । वे कभी जलाशयों का अमृत-तुल्य जल भी नहीं पीते। यह सच है कि गुण प्रेम में रहते हैं, वस्तु में नहीं।
(वि० सं० १९६८ पौष-राजलदेसर)
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