________________
१२६ अतुला तुला
यह सम्पूर्ण आकाश एक है, अखण्डित है, तो भी घरों का निर्माण हुआ है। घर न पूर्ण आकाश है और न आकाश से भिन्न है। उसी प्रकार मैं बोल भी रहा हूं और नहीं भी बोल रहा हूं।
आचार्यप्रोक्तं मुखवस्त्रिकेयं, वाक्संयमस्यास्ति प्रतीकमच्छम् । उच्छृखला वाग् बहुवर्ततेत्र,
ग्रामप्यरण्येपि च संसदीह ॥४॥ आचार्यश्री ने कहा है-मुखवस्त्रिका वाक्संयम का प्रतीक है। गांव में, जंगल में और संसद में सर्वत्र आज वाणी की उच्छृखलता दीख रही है।
नात्मश्लाघा पंडितेनात्र कार्या, दोषा वाच्या नो परेषां कदाचित् । एतत् स्पष्टं साम्प्रतं जायमानं,
वैचित्र्यं तद् व्यत्ययो नाम जातः ।।५।। अपनी प्रशंसा और दूसरों का दोषाख्यान पंडित व्यक्ति को नहीं करना चाहिए। लेकिन आज स्पष्टरूप से इसका व्यत्यय हो रहा है। यह आश्चर्य की बात है।
(२-५-७० गोपुरी में विनोबा भावे द्वारा प्रदत्त विषय)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org