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आशुकवित्वम् १२५ शैलेशशैली विदधत्स्वकार्ये,
शैलेश एष प्रतिभाति मूतः ॥४॥ महान् बाहुबली समर्पण के आद्य प्रवर्तक और विसर्जन के मानदंड थे। ये शैलेश बाहुबली पर्वतराज की सारी संपदा को स्वगत किए हुए आंखों के सामने
(१६-५-६६ श्रवणबेलगोल (मैसूर), बाहुबली की मूर्ति के समक्ष)
३६ : वाक्-संयम पश्यामि साक्षाद् विषये विरोध, करोमि किं वा किमिदं विचित्रम् । वक्तुं प्रदत्तो विषयो ममाऽसौ,
वाक्संयमस्याऽत्र महत्वमस्ति ॥१।। मुझे आशुकविता में बोलने के लिए विषय दिया गया है—'वाक्-संयम का महत्त्व'। मैं इस विषय में साक्षात् विरोध देख रहा हूं। अब मैं क्या करूं ?
वदाम्यहं तन्नहि वाग् यथा स्याद्, वदामि नाहं विषयस्य पूर्तिम् । प्रायो विरोधे समुपस्थिते हि,
मार्गो नवः स्याच्च पुरस्कृतोऽपि ॥२॥ यदि बोलता हूं तो वाक्संयम नहीं रहता और यदि नहीं बोलता हूं तो विषय की पूर्ति नहीं होती। प्रायः विरोध उपस्थित होने पर ही नया मार्ग निकल आता है।
आकाशमेतत् सकलं समग्रं, तत्रापि निर्माणमभूद् गृहाणाम् । गृहं न चाकाशमपेतरन्न, तथैव वच्मीति न वापि वच्मि ॥३॥
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