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आशुकवित्वम् १२३ आचारनिष्ठानऽपरान् सृजन्ति,
आचार्यसंज्ञामुपयान्ति ते हि ॥१॥ जो स्वयं आचारवान् हैं, सदा आचार का प्रचार करते हैं और दूसरों को आचारवान बनाते हैं, वे ही 'आचार्य' कहलाते हैं।
आचारनिष्ठा प्रबला यदा स्यात्, तदा मनुष्या इह सत्यनिष्ठाः । आधारशून्यं न गृहं गृहं स्या
न्नाचारशून्यो मनुजोऽपि तद्वान् ॥२॥ जब आचार-निष्ठा प्रबल होती है तब मनुष्य सत्यनिष्ठ होते हैं । जिस प्रकार आधार-शून्य गृह गृह नहीं होता उसी प्रकार आचार-शून्य मनुष्य मनुष्य नहीं होता।
आचार्यवर्याश्च विराजमाना, यत्सम्मुखीनो नरनायकोपि । स लौकिकश्चापि तथेतरोऽपि,
संयोग एष प्रकृतः प्रकृष्टः ॥३॥ एक ओर आचार्य तुलसी विराजमान हैं और उनके सम्मुख महाराजा (मैसूर) बैठे हुए हैं । ये महाराजा लौकिक और आचार्य तुलसी पारलौकिक विद्याओं में निपुण हैं । यह एक उत्कृष्ट संयोग मिला है।
इतश्च संघो यमिनां विभाति, वनस्पतेः साक्ष्य मिदं च मध्ये । स्वामी स्थितः सम्मुख एष पुण्यः,
सर्वोऽपि योगः सहजोऽस्ति लब्धः ॥४॥ इधर साधु-साध्वियों का समूह है । बीच में फल-फूलों से भरे हुए थाल हैं।' सामने राजपुरोहित बैठे हुए हैं। यह सारा योग सहज रूप से प्राप्त हुआ है।
(२-५-६६ मैसूर राजप्रासाद) १. मैसूर के महाराजा ने आचार्यश्री को भेंट देने के लिए फल-फूलों से भरे
थाल वहां सजा रखे थे।
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