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३४ : कलश
मांगल्यधाम परम: कलशो विभाति, सर्वत्र पूजितजनैः विहितो मतश्च । पूर्णत्वभावगरिमां वृणुते तदैव,
यद् व्यापृतो जलभृतश्चलितो न किंचित् ।।१।। कलश परम मंगल है। यह सर्वत्र पूजित-जनों (पूर्वजों) द्वारा सम्मत और विहित है, क्योंकि यह पूर्णता का द्योतक है। पूर्णता और गरिमा उसी को प्राप्त होती है जो व्याप्त होने पर भी कभी नहीं छलकता।
कल्याणमेतत् किल धातुपात्रं, पात्रं पवित्रं हृदयं भवितु । आचार्यवर्याः हृदयानुभूति
प्रपूतचित्ताः परमाः पवित्राः ॥२॥ यह धातु-पात्र कलश मंगल माना जाता है। हृदय-पान तो सबसे बड़ा मंगल है। हृदय की अनुभूति से पवित्र चित्तवाले आचार्यवर्य परम पवित्र हैं। (त्रिवेन्द्रम् (केरल), राजप्रासाद में महारानी सेतुपार्वती
द्वारा प्रदत्त विषय, १८-३-६६)
३५ : समागमन
मध्याह्नवेला परमा प्रशस्ता, मित्रानुभूतेः स्मृतिरत्र पूर्णा । अतीत भावोऽपि च वर्तमाने,
समन्वितः स्यात् क्वचिदेव लब्धः ॥१॥ यह प्रशस्त मध्याह्न-वेला है। यहां मित्रता की अनुभूति की स्मृति भी सम्पन्न हई है। वर्तमान में अतीत का सामंजस्य कहीं-कहीं ही प्राप्त होता है।
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