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१२० अतुला तुला
सारी तपस्या, साधना और सभी व्यक्तियों का श्रम केवल चैतन्याकाश को पाने के लिए ही होता है। उसके बिना सब कुछ बेकार है।
आचार्यवर्यास्तुलसी , वरेण्या:, चिदम्बरादाप्तशरीरपोषा: . । ज्ञानं विवेकस्य विलब्धमत्र,
चिदम्बरे संप्रति प्राप्तवन्तः ॥३॥ श्रीमद् आचार्य तुलसी उसी चिदाकाश से शरीर में पोषण पा रहे हैं। वे विवेक का ज्ञान प्राप्त करने के लिए अभी चिदम्बर में आए हैं ।
रूपं न रूपं यदि नास्ति दृष्टं, न नामरूपे विहिते हि काम्ये । क्व पारदर्शी स्फटिकावदात,
आत्मा मदीयस्त्विति दर्शनार्थी ॥४॥ वह रूप रूप नहीं है जो दृष्ट नहीं होता तथा नाम और रूप अभिलषणीय रूप में विहित नहीं हैं । 'मेरा स्फटिक की भांति निर्मल और पारदर्शी आत्मा कहां है'-यह देखने का अर्थी होकर मनुष्य चिदाकाश में घूम रहा है।
रूपं विलोक्यापि न दृष्टमत्र, दृश्यं यदत्रास्ति च चक्षुषापि । अदृश्यमाद्रष्टुमिहाव्रजन्ति,
लोकाः स्वचक्षुविहितावभासाः ॥५।। मनुष्य ने रूप को देखकर भी यहां उसे नहीं देखा जो चक्षु के द्वारा दृश्य है। इसलिए मनुष्य अपनी आंखों में ज्योति संजोकर अदृश्य को देखने के लिए यहां 'चिदंबर' में आ रहे हैं।
(२५-१-६६ चिदम्बरम्, तमिलनाडु, नटराज मन्दिर)
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