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३२ : त्रिनेत्र
दृष्टिर्यस्यास्ति निद्रामपि च गतवतो द्रष्टुमहॅन्न सत्यमेकं नेत्रं विनिद्रं भवति परिचितं किञ्चिदालोकतां तत् । नेत्रे द्वे स्ते विनिद्रे प्रतिपलकमसौ मज्जतात्सत्यसिन्धो, सप्तः सप्तार्कनुन्नारुण किरणनिभः पातु विभ्रन् त्रिनेत्रः ॥ १ ॥
जिसकी दृष्टि सुप्त है, वह सत्य को नहीं देख पाता । जिसकी एक आंख खुली है, वह कुछ परिचित पदार्थों को देख सकता है । जिसकी दो आंखें खुली हैं, वह प्रतिपल सत्य के समुद्र में डुबकियां लेता रहता है । किन्तु त्रिनेत्र, जो सात घोड़ों से प्रेरित सूर्य की किरणों के समान तेजस्वी है, वह सत्य का पारगामी होता है, 'वह हमारी रक्षा करें ।
(१७-११-६८ मद्रास संस्कृत कॉलेज )
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३३ : अदृश्य-दर्शन
चिदम्बरे भानुरुदेति पूषा, चिदम्बरे गच्छति मेघमाला । सर्वेपि लोकाः विहिताशयाः स्युः,
चिदम्बरत्वं न वृतं यदा स्यात् ॥१॥
चिदाकाश में पूषा - सूर्य उदित होता है और चिदाकाश में ही मेघमाला उमड़ती है । जब चिदाकाश आवृत नहीं होता तब सारे लोग अच्छे विचारों वाले होते हैं ।
सर्वा तपस्यापि च साधनापि, सर्वोऽपि पुसां श्रम एव लोके । चिदम्बरत्वं. खलु लब्धमेव, बिना तदेतत्सकलं विसारम् ॥२॥
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