________________
११८ अतुला तुला चुका है। जिसका मन विलुप्त है, वह कला की सोलहवीं कला को भी नहीं पा सकता।
सर्वा कला धर्मकलाप्रविष्टा, चित्तं यतः स्वास्थ्यमुपैतिभ व्यम् । चित्तस्य नाशेन कलाकला स्यात्,
सर्वस्तथैवाभिनयोभिनीतः ॥३॥ सारी कला धर्म-कला में प्रविष्ट है। इससे चित्त प्रसन्न होता है । चित्त के नष्ट होने पर कला अ-कला हो जाती है। इसी प्रकार सारा अभिनीत अभिनय अनभिनय हो जाता है।
स्वराः कलास्थानमुपावजंति, तथा शरीरावयवा अशेषाः । कलामयं विश्वमिदं समस्तं,
कलामयं यस्य मनो विभाति ॥४॥ जिसका मन कलामय है उसके सारे स्वर और शरीर के सभी अवयव कला बन जाते हैं तथा यह सारा विश्व कलामय हो जाता है।
केशावलीयं ललिता सुरम्या, चक्षुः प्रसन्नं विमला प्रवृत्तिः । सौन्दर्यमेतत्सहज वरेण्यं,
क्षेत्रं कलायाश्च भवेत्तदेव ॥५॥ ललित और सुरम्य केश-राशि, प्रसन्न चक्षु और निर्मल प्रवृत्ति-यह व्यक्ति का सहज-श्रेष्ठ सौन्दर्य है और वस्तुतः यही कला-क्षेत्र है। ___ (३-११-६८ अडियार (तमिलनाड्) में रूक्मणी देवी अरुंडाल के कलाक्षेत्र में)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org