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११६ अतुला तुला
यावज्जगत्यामिह वर्तमानं, तदेव भूतं च तदेव भावि । न चाणुमात्रं लभतेऽत्र हानि,
नोत्पत्तिमन्यां लभते नवीनम् ॥३॥ जो इस जगत् में वर्तमान है, वही रहा है और वही होगा। न अणुमात्र कम होता है और न अणुमात्र नए रूप में उत्पन्न होता है।
शब्दस्य नूनं विकला प्रवृत्तिः, नेकक्षणे वाच्यमशेषितं स्यात् । स्याच्छन्दयुक्ता भवति प्रवृत्तिः,
वक्त क्षमा वस्तुसमग्ररूपम् ॥४॥ शब्द की प्रवृत्ति विकल होती है। एक क्षण में वह वाच्य को अशेष रूप में कह नहीं पाता। जब वह शब्द 'स्यात्' युक्त होता है, तभी वह वस्तु के समग्र रूप का वाचक बनता है।
वाच्यो न वाच्यः सकलः पदार्थः, स्याच्छब्दयुक्तो भवतीह वाच्यः । एकेन धर्मेण च वाच्यमानं,
समग्रवस्तु स्थिरतामुपैति ।।५।। पदार्थ वाच्य होने पर भी अनन्तधर्मा होने के कारण वाच्य नहीं है। वह 'स्यात्' शब्द से युक्त होकर ही वाच्य बनता है। समग्र वस्तु यदि एक धर्म के द्वारा वाच्य होती है तो वह वर्तमान पर्याय में ही स्थिर हो जाती है, गतिशील नहीं रहती और नए-नए पर्यायों के उत्पन्न होने की क्षमता को खो बैठती है।
भङ्गत्रयीयं विबुधैः प्रबुद्धा, चतुष्टयं भङ्गमितो विकल्प्यम् । विकल्पमात्रेण भवेत्प्रवृत्तिः,
सापेक्षभावान् 'प्रति सत्यलब्धान् ॥६॥ विद्वानों ने तीन भंगों (विकल्पों) का कथन किया है-स्याद् अस्ति; स्याद् नास्ति, स्याद् अवक्तव्य । शेष चारभंग-स्याद् अस्ति-नास्ति,स्याद् अस्तिअवक्तव्य, स्याद नास्ति-अवक्तव्य और स्याद् अस्ति-नास्ति अवक्तव्य-इन्हीं के
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