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________________ आशुकवित्वम् ११५ जब तक आत्मा पवित्र नहीं होती और बंधे हुए कर्म नहीं टूटते तब तक प्रकम्प होता रहेगा। देव भी रक्षा कैसे कर सकते हैं ? पापप्रवृत्ति च समाचरन्तः, फलं वरेण्यं स्पृहयन्ति लोकाः। विरोधिकार्य कथमस्ति भावि, भूयात्तदानीं जगदेव. लुप्तम् ।।८।। मनुष्य पाप की प्रवृत्ति करते हुए भी अच्छे फल पाने की इच्छा करते हैं। यह विरोधी बात कैसे हो सकती है ? यदि ऐसा हो जाए तो जगत् ही लुप्त हो जाए। ३० : नयवाद विरोधियुग्मं कथमत्र भूयात्, प्रतीतिरेषाऽस्ति पुरातनानाम् । वैज्ञानिकेस्मिन् समये मनुष्य भिन्नत्वमाप्तं बहुधा प्रवृत्तः॥१॥ एक ही वस्तु में विरोधी युगल कैसे रह सकता है-यह प्रतीति पुराने व्यक्तियों की है। आज के इस वैज्ञानिक समय में बहुधा-प्रवृत्त मनुष्यों ने भिन्नता प्राप्त की है। अस्तित्वमाधाय यदस्ति नित्यं, नास्तित्वहीनं न तदस्ति नूनम् । सतोऽसतश्चापि न कोपि भेदः, सर्वत्र युग्मं लभते प्रवृत्तिम् ॥२॥ जो पदार्थ अस्तित्व धर्म की अपेक्षा से नित्य है वह निश्चय ही नास्तित्व से विहीन नहीं है । यदि ऐसा न हो तो सत् और असत् में कोई अन्तर नहीं हो सकता, इसलिए सर्वत्र विरोधी-युग्म मिलते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003063
Book TitleAtula Tula
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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