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आशुकवित्वम् ११३ देहेषु बुद्धिश्चरतीह येषां, देहस्पृशस्ते मनुजा भवन्ति । ते स्थूलदृष्ट्या सततं लभन्तेऽ
परां च विद्यामविकम्पमानाः ॥४॥ जिन मनुष्यों की बुद्धि जड़ शरीर में ही विचरण करती है, वे शरीर का स्पर्श करने वाले होते हैं। वे अपनी स्थूल-दृष्टि से बिना हिचक के सदा अपरा विद्या को ही प्राप्त होते हैं।
भूकम्प या स्यात्प्राकृतिकी प्रकोपपटली तस्या भवेद् रक्षणं, चेष्टा मानसिकी तथैव सकला वृत्तिः समायोजिता । के के देहभृतो न कम्पनयुताः स्युश्चित्तवृत्ति श्रिताः, कम्पं स्वात्मगतं न यावदतुलं पश्यन्ति रक्षा कुतः॥१॥ जो प्राकृतिक प्रकोप होता है, उससे रक्षा करने के लिए मानसिक चेष्टा और सारी प्रवृत्तियां समायोजित होती हैं। मन के पीछे चलने वाले ऐसे कौन मनुष्य हैं जो कम्पनयुक्त नहीं हैं ? जब तक मनुष्य अपने आत्मगत अतुल कम्पन को नहीं देख पाते, तब तक रक्षा कैसे हो सकती है ? ।
चेत्सत्यबुद्धया स्थिरचेतसः स्युनं नाम भूकम्प इहास्तु भूयः । तदा स्वकम्पात् विरता भवेयुः
रक्षाऽभ्युपायो गदितो मयात्र ॥२॥ यदि मनुष्य सत्यबुद्धि से स्थिरचित्त वाले हो जाएं तो फिर यहां भूकम्प नहीं होने वाला है। तभी वे अपने कम्पनों से विरत हो सकते हैं। भूकम्प से रक्षा का यह उपाय मैंने प्रतिपादित किया है।
भूमौ प्रकम्पः क्वचिदेव जात:, चिन्ता समस्तानुगता समेषाम्।
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