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आशुकवित्वम् १०६
देव हो या जिन, वही लोक में शरणभत होता है जो विकल्प से शून्य है । जो शून्य होता है वही दूसरे को धारण कर सकता है । जो स्वयं भरा हुआ है, वह दूसरे को निष्ठा (आधार) नहीं दे सकता ।
लोकस्य नादित्वमिदं गृहीतं, तथैव देवस्य न वा गृहीतम् । यत्रैतदस्ति प्रवरं तदानीं, तुला तुला वा न च वर्णनीयां ॥३॥
लोक का आदि-काल ज्ञात नहीं है । इसी प्रकार देव का आदि काल भी ज्ञात नहीं है । जहां अनादित्व प्रवर है, वहां तुलना और अतुलना वर्णित नहीं हो सकती ।
आकाशमेतद् न कदापि बुद्धं, शून्यं ततश्चापि च वर्ण्यमानम् । तथैव भूयो भगवत्स्वरूपं, भवेच्च चित्रं तदिदं विशिष्टम् ||४||
यह आकाश है, ऐसा कभी ज्ञात नहीं हुआ । इसीलिए वह शून्यरूप से वर्णित हो रहा है । इसी प्रकार भगवान का स्वरूप भी कभी ज्ञात नहीं होता, फिर भी वह शून्य के रूप में वर्णित होता है । यह बहुत आश्चर्य की बात है ।
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सीमां गतः कोपि जनो जगत्यां, नाधारकत्वं न तथाऽतुलत्वम् । प्राप्नोति तेनाऽथ जनोपि देवः स्यात् चित्रकारीति तनोमि भावम् ||५||
सीमा में रहने वाला कोई भी मनुष्य न आधार बनता है और न अतुलनीय होता है । इसीलिए मनुष्य देव बनना चाहता है । यह आश्चर्यकारी है, ऐसा मैं कहता हूँ ।
भूमिविशाला च ततः समुद्रः, ततो नभः स्याद् भगवांस्ततोऽपि । भक्तस्य चित्तं च ततोपि बाढं, नाश्चर्यमेतद् भुवने किमस्ति ? || ६ ||
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