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________________ १०८ अतुला तुला भींत में छिद्र स्वाभाविक नहीं लगता । इसी प्रकार अहिंसा में अपवाद की चर्चा क्रियमाण और श्रूयमाण नहीं है । विषय (१४-४-६८ - तिलक विद्यापीठ, पूना) २७ : तुलना [सर्वव्याप्यप्यनाधारं जगदाधारकं महत् । अनाद्यनन्तमतुलं, सर्वाश्चर्यमयं नभः ॥ तदिदं परमेशस्य ब्रह्मणो वा जिनस्य वा 1 रूपेण तुलनां कृत्वा, गैर्वाण्यैवात्र वर्ण्यताम् ॥ सर्वव्यापी और निराकार होते हुए भी जगत् को आधार देने वाला, महान् अनादि-अनन्त, अतुलनीय और सबके लिए आश्चर्यकर आकाश की परमेश्वर, ब्रह्मा और जिनके रूप से तुलना करते हुए संस्कृतवाणी में उसका वर्णन करें ।] विषयपूर्ति - Jain Education International परत्वबुद्ध्या प्रभृतं मनः स्यात्, तदावकाशं न परे लभन्ते । स एव, आधारभूतो भवने यस्यास्ति रिक्तं च मनः समस्तम् ||१|| जब मन 'परत्व' की बुद्धि से भरा होता है तब उसमें दूसरे ( पर ) प्रवेश नहीं पा सकते | जिसका मन समूचा खाली है, वही जगत् का आधार बन सकता है । देवो भवेद् वापि जिनो भवेद् वा, ददीत । स एव लोके शरणं शून्यत्वमाप्तो हि परं भतो न वा क्वापि करोति निष्ठाम ॥२॥ बिभत्ति, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003063
Book TitleAtula Tula
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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