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१०६ अतुला तुला
कहा - 'वहां तीन वहां रख दी थी ।'
डिबियां थीं ।' चोर ने कहा - 'दो मैंने ली थीं और तीसरी राजा ने मन्त्री से पूछा । मन्त्री ने सच नहीं कहा। राजा के मन में सन्देह हुआ । खोज करने पर एक डिबिया मन्त्री के घर मिली ।
चोरोऽपि सत्यं वदतीति राज्ञा,
व्यधायि सोऽमात्यवरः स्वराज्ये |
वदन्नसत्यं,
अमात्यवर्योऽपि कारागृहे
वासमलंचकार ॥७॥
'चोर भी सत्य बोलता है' - ऐसा सोचकर राजा ने मणिशेखर को अपने राज्य का सचिव बना दिया और 'मन्त्री होकर झूठ बोलता है' - ऐसा सोचकर उस मन्त्री को जेल में डाल दिया ।
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( वि० सं० २०२३ माघ, बम्बई – डॉ० नार्मन ब्राउन, संस्कृत विभागाध्यक्ष, पेनिसिलेविया यूनिवर्सिटी, अमेरिका, द्वारा प्रदत्त विषय)
२५ : समुद्र और वृक्ष-लयन
सिन्धुर्गजि व्यधित विपुलां विक्षिपन् वीचिमालां, शान्ता श्यामा विधुधवलिता तत्सहाया प्रजाता । प्रासादानामपि विपिनां तीरदेशे स्थितानां, भीतिदृष्टा न खलु वदने तत्र हेतुः समुद्रः ॥ १ ॥
समुद्र लहरों को उछालता हुआ जोर से गर्जन कर रहा था। चांद की चांदनी से धवलित अंधेरी रात समुद्र के गर्जारव को फैलाने में सहायक हो रही थी, किन्तु तट पर स्थित बड़े-बड़े मकान और वृक्ष निष्प्रकम्प खड़े थे । उनमें भय का लवलेश नहीं था । इसका मूल कारण था समुद्र । क्योंकि समुद्र अपनी मर्यादा का अतिक्रमण नहीं करता ।
उत्कीर्याद्रि
लयननिवहः
संस्कृतोऽदृष्टपूर्वः,
छित्त्वा स्कन्धं वरशिखरिणो निर्मितो नोटजश्च ।
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