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आशुकवित्वम् १०५
घोरा तमिस्रा सघनं तमिस्र, बन्धो ! कथं भ्राम्यसि रात्रिमध्ये ? पृष्ठो नृपेणाह स चोरमुख्यः,
चौर्यं विधातुं नृपसम यामि ।।३।। एक दिन मणिशेखर चोरी करने निकला। रास्ते में परिवर्तित वेश में राजा मिला। राजा ने पूछा-'भाई ! रात अंधेरी है और अंधकार भी सघन है। ऐसी रात में क्यों घूम रहे हो ?' चोर सम्राट् मणिशेखर बोला-'मैं राजा के महल में चोरी करने जा रहा हूं।'
चोरोऽपि सत्यं वदतीति राज्ञो, न कल्पना चेतसि संबभूव । विधाय चौर्यं पुनरागतस्य, प्रश्नस्तथैवोत्तरमत्र जातम् ॥४।। चौर्यं कृतं क्वेति जगाद राजा, प्रासादमध्ये नपतेः स चाह । भ्रान्ताशयोऽसौ ग्रथिलोऽथवा स्यात्,
संचिन्त्य राजा स्वगृहं जगाम ॥५॥ चोर भी सत्य बोलता है-राजा को ऐसी कल्पना भी नहीं थी। चोर चोरी कर आ रहा था। राजा पुनः मिला। चोर से पूछा- 'तुम कहां गए थे ?' चोर ने कहा-'चोरी करने गया था। राजा ने फिर पूछा-'तुमने चोरी कहां की ?' चोर ने कहा-'राजा के महल में।' राजा ने यह सोचा-यह व्यक्ति या तो पागल है या विक्षिप्त है । राजा अपने स्थान पर आ गया।
जग्राह पेढायुगलं मणीनामेकां च मंत्री स्वगतं चकार । चोरो गृहीतः समुवाच सत्यं,
न सत्यमुक्त सचिवेन किञ्चित् ॥६॥ मणिशेखर ने राजा के खजाने से रत्नों की दो डिबियां चुराई थीं। प्रातःकाल चोरी की बात सुन मन्त्री खजाने में गया और वहां पर बची एक डिबिया को स्वयं घर ले गया। दूसरे दिन चोर पकड़ लिया गया। उसने राजा के समक्ष चोरी स्वीकार करते हुए कहा-'मैंने रत्नों की दो डिबियां चराई हैं।' राजा ने
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