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आशुकवित्वम् १०३ दृष्टिर्न मुह्यत् प्रतिबिम्बमात्रे, दृष्टिर्न मे संशयिता कदापि । विपर्ययं गच्छतु नैव दृष्टि
ष्टिं लभेऽहं विशदां मुनीश ! ॥५॥ मुनीश ! प्रतिबिम्ब मात्र से मेरी दृष्टि मूढ न हो । मेरी दृष्टि में संशय और विपर्यय भी न हो । देव ! मुझे पवित्र दृष्टि का लाभ हो।
विश्वासं कुरुसे कुरुष्व चिदि तं बाढं न वा विद्युति, विश्वासं कुरुसे कुरुष्व मनसः शान्तौ न वा वादले । विश्वासं कुरुसे कुरुष्व सुतरां हस्ते न वा वैभवे, स्थैर्ये विश्वसनं हितं स्थिरतरं तच्चञ्चले चञ्चलम् ॥६॥
यदि तु विश्वास करता है तो चैतन्य के प्रति गहरा विश्वास कर. विद्युत् के प्रति नहीं।
यदि तू विश्वास करता है तो मानसिक शांति के प्रति विश्वास कर, बादल के प्रति नहीं।
यदि तू विश्वास करता है तो सदा हाथ-श्रम में विश्वास कर, वैभव के प्रति नहीं।
स्थैर्य में विश्वास करना हितकर और स्थिरतर होता है और चंचल में किया गया विश्वास भी चंचल होता है।
(वि० सं० २०२२ अणुव्रत विहार, दिल्ली)
२३ : भावना
विरागः सर्वदोषेभ्योऽनुरागस्तव . पादयोः । निपातः सर्वपापानां, प्रणिपातस्तयोः महान् ॥१॥
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