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२२ : आत्मबोध
आलोकशून्या अपि सन्ति केचिदालोकभीता अपि सन्ति केचित् । आलोकमुग्धा अपि सन्ति केचि
दालोकदक्षा विरला भवन्ति ॥१॥ कुछ पुरुष आलोक से शून्य, कुछ आलोक से भयभीत और कुछ आलोक से मूढ होते हैं। किन्तु आलोक में निपुण पुरुष विरले ही होते हैं ।
न चान्धकारो न च चाकचिक्यं, न संशयो नापि विपर्ययश्च । न चापि रोगो जनयेत्प्रभावं,
दृष्टि: प्रसन्ना मम सास्तु देवः ! ॥२॥ - देव ! मेरी दृष्टि प्रसन्न रहे। अन्धकार, चाकचिक्य संशय, विपर्यय और रोग-ये मेरी दृष्टि को प्रभावित न करें। देहप्रसादो
रसनाजयेन, पूर्वाग्रहं मुञ्चति दृक्प्रसादः । मनःप्रसादः समताश्रयेण,
पुण्या त्रयीयं भगवन् ! मयि स्यात् ॥३॥ भगवन् ! स्वादविजय से शारीरिक स्वास्थ्य, पूर्वाग्रह के त्याग से दृष्टि का स्वास्थ्य और समता के आचरण से मानसिक स्वास्थ्य-इन तीनों का पुण्य संगम मेरे में हो।
प्रकाशरेखा भवतु प्रबुद्धा, शक्तिः प्रशस्ता भवतु प्रकर्षम् । आनन्दसिन्धुर्भवताद् गभीरः
तव प्रसादान् मम देव ! देव ! ॥४॥ देव ! आपकी कृपा से मेरे प्रकाश की रेखा जागृत हो, शक्ति प्रशस्त हो और मेरा आनन्द का सिन्धु गहरा होता रहे ।
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