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आशुकवित्वम् ६६
दीपक यह स्पष्ट रूप से कह रहे हैं कि जिस प्रकार हम क्षणभंगुर हैं, उसी प्रकार सारा जगत् भी क्षणभंगुर है । इसलिए मनुष्यों को चाहिए कि वे स्थायी प्रकाश के लिए यत्न करें ।
अहह चतुरचेता दीपमालामिषेण, दिवसयति निशैवं मास्म निन्दन्तु लोका: । जगति भगवतोऽयं वर्धमानस्य जातो, विरह इह वसत्यां भानुभायामसत्याम् ॥२॥
चतुर चित्तवाली रात्रि दीपमाला के भिष से अपने को दिन के रूप में प्रदर्शित कर रही है, इसलिए कि लोग निन्दा न करें कि असाधारण व्यक्तित्व वाले भगवान् महावीर का विरह सूर्य की प्रभा के अभाव में इस रात्रि में हुआ है।
लोका न वक्रा: स्थितिरप्यवका, कालोऽनुकूलः सुखितो जनोऽपि । देवार्यदेवावतरेस्तदातो,
भाग्योदय वच्मि कलेः किमन्यत् ॥३॥
भगवन् ! उस समय लोग भी वक्र नहीं थे और स्थिति भी वक्र नहीं थी । काल अनुकूल था और जनसाधारण सुखी । उस समय आपने अवतार लिया । इसे मैं कलिकाल का भाग्योदय ही कहूं, और क्या कहूं ?
श्रेयो यदेकं मिलितं तदानीं, यागस्य हिंसाप्रतिरोधनस्य । कियन्ति तान्यद्ययुगे मिलिष्यन्नत्रानुमाया अपि नानुमा स्यात् ||४||
'भगवन् ! उस समय आपको यज्ञ की हिंसा के प्रतिरोध का एक ही श्रेय मिला था । किन्तु आज के युग में आपको कितने श्रेय प्राप्त होते, इसके अनुमान - का भी अनुमान नहीं हो सकता ।
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(वि० सं० २०१८ बीदासर - दीपावली )
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