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१८ : सम्मंदोशखर
न वा स्वभावः परिवर्तितः स्यात्, सुनिश्चितं सत्यमिदं ब्रवीमि । वनं विहायैव गता मनुष्याः,
वनं श्रिता मोदमवाप्नुवन्ति ॥१॥ मैं यह सुनिश्चित कह सकता हूं कि सत्य परिवर्तित नहीं होता। वन को छोड़ मनुष्य नगरों में गए किन्तु आज पुनः वन में आकर प्रसन्नता का अनुभव कर रहे हैं।
सदा ऋजुत्वं पुरुषः प्रशस्तं, परन्तु वक्रत्वमपि क्वचित्स्यात् । वक्रश्च मागैर्वयमत्र याता:,
पन्था ऋजु व सहायकोऽभूत् ॥२॥ - मनुष्य ने सदा ऋजुता की प्रशंसा की है, किन्तु कहीं-कहीं वक्रता भी प्रशस्त होती है। मार्ग वक्र थे इसीलिए हम यहां (पर्वत पर स्थित पार्श्वनाथ के मन्दिर) तक आ गए। ऋजु मार्ग (सीधा मार्ग) यहां पहुंचने में हमारा सहायक नहीं हुआ।
(वि० सं० २०१६ मृग० शु० ६, सम्मेदशिखर पार्श्वनाथ मन्दिर)
१६ : दीपमालिका
यथा वयं स्मः क्षणभङ्ग रा हि, तथा जगत्सर्वमिदं विभाव्यम् । स्थायिप्रकाशाय सृजन्तु यत्नमिति प्रदीपाः प्रकट ध्वनन्ति ।।१।।
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