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आशुकवित्वम् ६७
अंतिमं देसणं काउं, साहिआ अंतिमा गई। अंतं किच्चा अणंतो भू,
अयलो अक्खयो अजो ॥२॥ उन्होंने अन्तिम देशना देकर, अन्तिम गति मोक्ष को प्राप्त कर लिया। वे भव का अन्त कर अनन्त, अचल, अक्षय और अजन्मा हो गए।
जस्स रम्माणि वक्काणि, कुज्जा वक्कमवक्कगं । तेसिं णाम समुद्धारो,
कायव्वो सो कहं भवे ॥३॥ जिनके सुरम्य वाक्य वक्र को भी अवक्र बना देते हैं। उन वाक्यों का उद्धार करना है। यह कैसे हो? .
पसारो उवदेसाणं, आयतुलप्पसाहिओ । भवे सो दिवसो धन्नो,
भविस्सइ भविस्सइ ।।४।। वह दिन धन्य होगा, जिस दिन भगवान् के उपदेशों का आत्मतुला से प्रसाधित प्रसार होगा।
विगारा णिविगारत्तं, जत्थ जंति य पाणिणं। को विगारो भवे तत्थ,
भूमी चेवाविगारिणी ।।५।। जिस भूमि पर प्राणियों के विकार निर्विकार हो जाते हैं, वहां कौन-सा विकार उत्पन्न हो सकता है ? यह सारी भूमि ही अविकारी है ।
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