SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 118
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६६ अतुला तुला जहां मनुष्य दूसरे मनुष्यों के साथ घृणा और विरोध रखते हैं, वह राष्ट्रसंघ यदि समता की धारा को प्रवाहित करे तो उसके नाम की सार्थकता सिद्ध होगी। (वि० सं० २०१५ मृग शु०-बनारस संस्कृत महाविद्यालय) १६ : मिलन अतीतमद्यास्ति विवर्तमानं, वाचोपि वागभिमिलिता भवन्ति । रजांस्यपि स्पर्शमुपागतानि, मस्तिष्कमद्यास्ति हृदा सहैव ॥१॥ आज अतीत वर्तमान में समा रहा है। वाणी वाणी से मिल रही है। यहां के रजकण भी आज स्पृष्ट हो रहे हैं और मस्तिष्क भी हृदय का साथ दे रहा है। इस मिलन की अपूर्ववेला में सब परस्पर मिल रहे हैं। (वि० सं० २०१५ पोष शु० ६ राजगृह, वैभार पर्वत) १७ : वैभार पर्वत और भगवान् महावीर मिउभावं कठोरत्तं, किच्चा चिअ समन्नि। अभू परीसहेदीणो, मिऊ सव्वेसु पाणिसु ॥१॥ भगवान् महावीर मृदुता और कठोरता-दोनों भावों से समन्वित थे। वे परीषहों को सहने में कठोर-अदीन थे किन्तु सभी प्राणियों के प्रति मृदु थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003063
Book TitleAtula Tula
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy