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आशुकवित्वम् ६३
स्यात् सूर्यजाऽसौ हृदयप्रकाश
स्तीर्थाधिराजस्तुलसीह जातः ।।६।। अणुव्रतों की पवित्र गंगा प्रवहमान है, सरस्वती-रूपी उपदेशवाणी प्राप्त हैं तथा हृदय प्रकाशरूपी यह यमुना विद्यमान है। इन तीनों का समागम आचार्यश्री तुलसी में हुआ है। इसलिए वे तीर्थाधिराज प्रयाग हो गए।
(प्रयाग-त्रिवेणी-संगम, वि० सं २०१५ मृग० कृ० १३)
और सारा मन हिरा सका
१३ : हिंसा-अहिंसा हिंसाप्लुतं मानसमस्ति सर्व, कीटो मृतस्तत्र मनःप्रहर्षः । वीरत्वबुद्धिर्लभते प्रवृत्ति,
न नाम कष्टानुभवोस्ति किञ्चित्।।१।। सारा मन हिंसा से व्याप्त है। कोई कीट मरता है तो मन में हर्ष होता है, और अपने आपमें वीरता की बुद्धि पैदा होती है। कष्ट का तनिक भी अनभव नहीं होता।
मनोप्यहिंसाविहितं पवित्रं, कीटो मृतस्तत्र भवेत्स्वबुद्धिः । नान्योऽसुमान कोपि मृतोस्ति किन्तु,
ममैव कश्चिद् निजकोस्ति लुप्तः ॥२॥ मन यदि अहिंसा से पवित्र है, तो कोई कीट मरने पर उसके प्रति 'स्व' की बुद्धि पैदा होती है। वह सोचता है—कोई अन्य प्राणी नहीं मरा है किन्तु मेरा ही कोई स्वजन मरा है।
(हिन्दी विद्यापीठ-प्रयाग)
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