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६४ अतुला तुला
१४ : अणुत्वं कथं स्यात् ?
स्वाभाविकी स्यादणुता जनानां, वैभाविकीयं गुरुता विभाति । बन्धो जनानां विगतो यदा स्यान,
मुक्तः स्वयं स्यादणुरेष आत्मा ॥१॥ प्राणियों के लिए अणुता स्वाभाविक है और गुरुता वैभाविक । जब प्राणी बन्धन-मुक्त हो जाता है, तब अणु आत्मा मुक्त हो जाती है।
लघुः सदा स्यादणुरत्र लोके, विनम्र एवापि लघुर्भवेच्च । विनम्र एव प्रविशेद् मनस्सु,
न वा गुरोः स्यात् सुलभोऽवकाशः ॥२॥ अणु लघु होता है और जो विनम्र होता है वह भी लघु होता है । जो विनम्र होता है वही मन में प्रवेश पा सकता है । गुरु (भारी) वहां स्थान नहीं पा सकता।
गुरुत्वमेवाणुगतं निसर्गे, यद् वा गुरौ वाप्यणुता निविष्टा। न सर्वथा कोपि गुरुर्न वास्ति,
स्यात् सर्वथा सूक्ष्म इति प्रतीतम् ॥३॥ स्वाभाविक रूप से अणुता में गुरुत्व है और गुरुत्व में अणुता है। कोई सर्वथा गुरु अथवा सर्वथा अणु (सूक्ष्म) नहीं होता। (वि० सं० २०१५ मृग० शु० २-झूसी आश्रम के अधिष्ठाता प्रभुदत्त
ब्रह्मचारी द्वारा प्रदत्त विषय)
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