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आशुकवित्वम् ६१ आकाश में विचरण करने वाले ये बादल कभी क्षेत्र का भेद नहीं करते । वे सर्वत्र एकता रखते हैं। इसी प्रकार सभी संस्कृतियों में एकता है।
का भारतीया च परा च कास्ति, दुर्लक्ष्य एषोस्ति निसर्गभेदः । परन्तु धारा सलिलस्य वीक्षे,
तदाम्बुवाहा उपयान्ति भेदम् ।।२।। कौन-सी संस्कृति भारतीय है और कौन-सी अभारतीय, यह भेद दुर्लक्ष्य है। किन्तु जब मैं जल की धारा को देखता हूं, तब बादल भिन्न-भिन्न हो जाते हैं।
त्यागस्य निष्ठा प्रवरा प्रतीष्ठा, यत्र व्रतानां महिमा । प्रकृष्टः । सा भारतीया किल संस्कृतिः स्याद्,
भिन्नाप्यभिन्नात्मगुणप्रकः ॥३॥ जहां त्याग की प्रवर निष्ठा और प्रतिष्ठा है, जहां व्रतों की प्रचुर महिमा है, वह भारतीय संस्कृति है। वह भिन्न होती हुई भी आत्मगुणों के प्रकर्ष में अभिन्न है।
(विक्रम संवत् २०१५, कानपुर-संस्कृत गोष्ठी)
१२ : त्रिवेणीसंगम
स्यात् सङ्गमोयं हृदयङ्गमोपि, तस्यैव यस्यास्ति मनः पवित्रम् । प्रकाशशीलं च मलापहारि,
प्रक्षालकं भावितवासनाया: ।।१।। जिसका मन पवित्र, प्रकाशवान, विशुद्ध और संस्कारों का प्रक्षालन करने वाला है, वही इस संगम को हृदयंगम कर सकता है।
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