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६ : मृतभाषा
वाग्वधिनी सभा, पूना - वि० सं० २०११ फाल्गुन शुक्ला ६ आर० एम० धर्माधिकारी द्वारा प्रदत्त विषय
"भाषा मृतेति प्रवदन्ति केचिद्, गीर्वाणवाणी गुणभूषिताऽपि । मुनीन्द्र ! तत्त्वं कथयस्व नूनं, कथं पुनर्वैभवशालिनी स्यात् ॥ "
'गीर्वाणवाणी (संस्कृत भाषा ) गुणों से भूषित है। फिर भी कुछेक व्यक्ति उसे मृत भाषा मानते हैं । मुनीन्द्र ! आप यह बताएं कि वह भाषा पुनः वैभवशालिनी कैसे हो ?'
विषयपूर्ति -
भाषा कदाचिन्न मृताऽमृता स्याद्, भाषाज्ञ एवापि मृतोऽमृतः स्यात् । जनश्चलन्ति,
भाषामुपादाय तेषां गतिः स्याच्च समीक्षणीया ॥ १ ॥
भाषा कभी भी मृत या अमृत नहीं होती । भाषाविद् ही मृत या अ-मृत होता है । लोग भाषा को लेकर चलते हैं । उनकी गति ही समीक्षणीय है । नव्यं,
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भाषाविदां जीवनमस्ति
भाषा स्वयं स्फूर्तिमिर्यात नव्याम् ।
भाषाविदां
भाषाऽपि
चेज्जडता प्रसूता, मृत्युं लभते तदत्र ॥२॥
भाषाविदों का जीवन यदि नया होता है तो भाषा भी नयी स्फूर्ति को प्राप्त होती है । यदि भाषाविदों का जीवन जड़ होता है तो भाषा मर जाती है ।
भाषाविकासं स्पृहयन्ति ये ये,
ते ते सचेष्टा: सरसा
भाषाविदां
वृद्धिगते
भवन्तु । महिम्नि,
भाषा स्वयं गौरवशालिनी स्यात् ॥ ३॥
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