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८८ अतुला तुला __ जिस भाषा के साहित्य में महान् तत्त्व हैं, जिसने अपनी आध्यात्मिक गति को वेग दिया है, जिसके आश्रयण से विकास-मार्ग विशद हो जाता है, फिर भी लोग उसका विरोध करते हैं।
तत्रापि तथ्यं वरिवति किञ्चित्, न संस्कृतस्यास्ति मुधा विरोध: । यत् संस्कृतज्ञा हि पुराणचित्ताः,
तद् यत्र तत्राग्रहमाश्रयन्ति ।।२।। उनके विरोध में भी कुछ तथ्य है। वे संस्कृत का व्यर्थ ही विरोध नहीं करते। संस्कृतज्ञ व्यक्ति पुराने विचारों के होते हैं। वे यत्र-तत्र आग्रह कर बैठते हैं।
सारं यथा नाम पुरातनेषु, तथा नवीनेष्वपि गृह्यते चेत् । भाषाविरोधः स्वयमेव नाशं,
नूनं नयेन्नात्र विमर्शणीयम् ।।३।। जिस प्रकार प्राचीनता में सारतत्त्व है वैसे ही यदि नवीनता में सारतत्त्व मान लिया जाए तो भाषा का विरोध स्वयं नष्ट हो जाता है। इसमें कुछ भी विचारणीय नहीं है।
सर्वत्र तत्त्वस्य भवेद् विरोधः, तत्र प्रमोदो विदुषां हि मान्यः । विरोधतस्तत्वमुपासनीयं,
न नाम भीतिश्च ततो विधेया ॥४॥ जहां सत् तत्त्व का विरोध होता है, वहां विद्वान् व्यक्ति प्रमुदित होते हैं। क्योंकि विरोध से तत्त्व के प्रति उपासना बढ़ती है। वहां भय नहीं खाना चाहिए।
(तिलक विद्यापीठ, पूना-२६-२-५५)
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