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आशुकवित्वम् ८७ इसमें कोई सन्देह का अंश भी नहीं है कि यह मनुष्य बहुत विचित्र है । यहां शृंगार के लिए नए-नए प्रयत्न होते हैं- यह सबको ज्ञात है। स्त्रियों के हाथ शृगारित होते हैं, किन्तु मनुष्यों ने भी घड़ी के मिष से हाथ को अलंकृत किया है। इससे यह आशंका होती है कि क्या मनुष्य स्त्रीत्व की ओर जा रहा है ?
लोकोऽयं जायमानो नहि नहि विदुषा विस्मयः कोपि कार्यः, स्त्रीत्वे पुंस्त्वं कदाचिद् भवति दृशिगतं पुंस्त्वमेवापि तत्त्वे । कालोऽसीमो विभाति प्रकृतिविलसितो यद्चिश्चापि चित्रा, बुद्धर्भदोपि जातस्तदघटितघटा मन्यतामत्र सत्या ।।४।। 'स्त्री से पुरुष और पुरुष से स्त्री बनना'—यह होता है। इसमें किसी विद्वान् को विस्मित नहीं होना चाहिए। काल असीम है। यह प्राकृतिक है। लोगों की रुचि भी भिन्न-भिन्न है। बुद्धि का तारतम्य भी है, इसलिए किसी भी अघटित घटना को सत्य माना जा सकता है।
८ : संस्कृतभाषाया विरोधः
डॉ० के० एन० वाटवे, एम० ए० पी-एच० डी०, संस्कृत विभागाध्यक्ष, एस० पी० कॉलेज, पूना, ने आशुकवित्व के लिए विषय देते हुए यह श्लोक कहा
यच्च संस्कृतभाषाया, विरोधो दृश्यते क्वचित् । - तमेवाश्रित्य विषयं, काव्यमत्र विरच्यताम् ।। 'कहीं-कहीं संस्कृत भाषा का विरोध किया जाता है । मुने ! आप इसी विषय को आधार बनाकर काव्य-रचना करें।'
विषयपूर्ति
यस्यां महत्तत्वमहो विभाति, स्वाध्यात्मिकी येन गतिःप्रवृद्धा। विकासमार्गो विशदो यतः स्यात्, तथापि लोकैः क्रियते विरोधः ।।१।।
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