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८६ अतुला तुला
समयज्ञापकं नित्यं, नव्यानां हस्तभूषणम् । स्रग्धरावृत्तमालम्ब्य,
घटीयन्त्रं हि वर्ण्यताम् ।। 'जो सदा समय बताती है, जो नौजवानों के हाथ का आभूषण बनी हुई है, उस घड़ी का स्रग्धरा छंद में वर्णन करें।' विषयपूर्ति
यद्वा ज्ञातं पुराणनिखिलऋषिवरैयोमवीक्ष्यापि कालः, ज्ञाता तज्ज्ञायते वा प्रकृतिविवशता साम्प्रतं वर्धमाना। स्वातन्त्र्यस्य प्रणादो बहुजनमुखगः किन्तु नो कार्यरूपे, हस्ते बध्वा घटीस्ता भवति च मनुजश्चित्रमासामधीनः ।।१।। प्राचीन ऋषि-मुनियों ने आकाश को देखकर काल का ज्ञान किया था। किन्तु आज बढ़ती हुई प्रकृति की विवशता स्वयं ज्ञात है या ज्ञात हो सकती है । वर्तमान में स्वतन्त्रता का स्वर जन-जन के मुख पर है, किन्तु वह कार्यरूप में परिणत नहीं है । आश्चर्य है कि मनुष्य हाथ पर घड़ी बांधकर, उसके अधीन हो रहा है ।
चक्षुर्यद् वान्तरालं स्फुरितमपि भवेत्तन्न यंत्रस्य चेष्टा, विज्ञाः पश्यन्तु सर्वे वयमिह मुनयः कस्य हस्तेऽस्ति यंत्रम् ? चक्षुष्मानत्र बुद्धो भरतजनपदे स्वात्मना स्वं प्रपश्येत्, बाह्य दृष्टिं वितन्वन् बहिरपि सुदृश! स्यात्पराधीनचेताः ॥२॥
अन्तराल का चक्षु खुल जाता है, वह कोई यन्त्र की चेष्टा नहीं मानी जाती। सारे विद्वान् यह देखें कि हम मुनियों के हाथ में कौन-सा यन्त्र है ? भारत में उसे ही चक्षुष्मान् माना है जो अपनी आत्मा से अपने आपको देखता है । चक्षुष्मान् विद्वानो ! बाहर की ओर झांकने वाले का चित्त बाह्य वस्तुओं के अधीन हो जाता है।
लोकोऽयं नाम चित्रो भवति च सततं नात्र सन्देहलेशः, शृङ्गारार्थ प्रयत्नो भवति नवनवो ज्ञातमेतत् प्रसिद्धम् । स्त्रीणां हस्ते हि दृष्टा भवति च मनुजैः साप्यलंकाररीतिः, घट्या व्याजेन लब्धा व्रजति च किमसौ साम्प्रतं स्त्रित्वमेतुम्।।३।।
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