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आशुकवित्वम् ८५ श्रोतुं विचारान् यतिनां वरेण्यान्,
समागतांस्तान्न विदन् प्रवेद्मि ॥५॥ जिनके विचार स्वभावतः निर्मल और स्पष्ट हैं, जिनकी सद्भावना स्फूर्तिमती है, जो मुनियों के वरेण्य विचार सुनने के लिए समागत हैं, उन्हें न जानता हुआ भी अच्छी तरह से जानता हूं।
प्रमोदराशिनयने निमग्नो, विलोक्यते तत्त्वमिदं महत्तत् । अप्रेम्णि ये प्रेम सभाजयन्ति,
ते पण्डिता एव न संशयोऽत्र ।।६।। सब की आंखों में प्रमोद भरा हुआ दीखता है, यह यहां की मुख्य बात है। जो व्यक्ति अप्रेम में भी प्रेम का प्रभुत्व स्थापित करते हैं, वे सब पंडित होते हैं, इसमें कोई भी संशय नहीं है।
नाज्ञेषु शान्तिः स्थिरताप्रसक्तिः, शान्ताः स्थिराः सन्ति समे यदेते। विद्वत्सभेयं लसतेऽत्र रम्या,
सर्वेऽपि विद्वांस इति ब्रवीमि ॥७॥ अज्ञ व्यक्तियों में शान्ति और स्थिरता नहीं होती। यहां शांति और स्थिरता दोनों हैं, अतः यह विद्वत्-सभा अत्यन्त रमणीय है और यहां उपस्थित सभी व्यक्ति विद्वान हैं, ऐसा मैं कहता हूं।
(तिलक विद्यापीठ, पूना, २६-२-५५)
७ : घटीयन्त्रम्
वाग्वधिनी सभा, पूना-वि० सं० २०११ फाल्गुन शुक्ला ६ (२६-२-५५) डॉ० के० एन० वाटवे, एम० ए०, पी-एच० डी० ने आशुकवित्व के लिए विषय देते हुए निम्न श्लोक कहा
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